मना सज्जना 1

समर्थ श्री रामदास स्वामी रचित श्रीमनाचे श्लोक.

गणाधीश जो ईश सर्वां गुणांचा।

मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा।

नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा।

गमूं पंथ अनंत या राघवाचा।।1।।

मना सज्जना भक्तिपंथेचि जावें।

तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें।

जनी निंद्य तें सर्व सोडूनि ध्यावे।

जनी वंद्य तें सर्व भावें करावें।।2।।

प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा।

पुढें वैखरीं राम आधीं वदावा।।

सदाचार हा थोर सांडूं नये तो।

जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो।।3।।

मना वासना दुष्ट कामा न ये रे।

मना सर्वथा पापबुध्दी नको रे।।

मना धर्मता नीति सोडूं नको हो।

मना अंतरीं सार विचार राहो।।4।।

मना पापसंकल्प सोडूनि द्यावा।

मना सत्यसंकल्प जीवीं धरावा।।

मना कल्पना ते नको वीषयांची।

विकारें घडे हो जनीं सर्व ची ची।।5।।

नको रे मना क्रोध हा खेदकारी।

नको रे मना काम नाना विकारी।।

नको रे मना लोभ हा अंगिकारूं।

नको रे मना मत्सरू दंभ भारू।।6।।

मना श्रेष्ठ धारिष्ट जीवीं धरावें।

मना बोलणे नीच सोशीत जावें।।

स्वयें सर्वदा नम्र वाचे वदावें।

मना सर्व लोकांसि रे नीववावें।।7।।

देहे त्यागिता किर्ति मागें उरावी।

मना सज्जना हेचि क्रिया धरावी।।

मना चंदनाचे परी त्वा झिजावें।

परी अंतरीं सज्जना नीववावें।।8।।

नको रे मना द्रव्य तें पूढिलांचे।

अति स्वार्थबुद्धी ने रे पाप साचे।।

घडे भोगणे पाप तें कर्म खोटे।

न होता मनासारिखें दुःख मोठें।।9।।

सदा सर्वदा प्रीति रामीं धरावी।

सुखाची स्वयें सांडि जीवीं करावी।।

देहेदुःख तें सूख मानीत जावें।

विवेकें सदा सस्वरूपी भरावें।।10।।